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Uttarakhand भारत की स्वाधीनता के युद्ध में ‘झंडा गीत’ का बड़ा महत्व है। इसे गाते हुए लाखों लोगों ने ब्रिटिश शासन की लाठी और गोली खायी। आज भी यह गीत सबको प्रेरणा देता है। इस गीत की रचना का बड़ा रोचक इतिहास है।
इसके लेखक श्री श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ का जन्म कानपुर (उ.प्र.) के पास नरवल गांव में नौ सितम्बर, 1893 को श्री विशेश्वर प्रसाद एवं कौशल्या देवी के घर में हुआ था। मिडिल पास करने के बाद उनके पिताजी ने उन्हें घरेलू व्यापार में लगाना चाहा; पर पार्षद जी की रुचि अध्ययन और अध्यापन में थी। अतः वे जिला परिषद के विद्यालय में पढ़ाने लगे। वहां उनसे यह शपथपत्र भरने को कहा गया कि वे दो साल तक नौकरी नहीं छोड़ेंगे। पार्षद जी ने इसे अपनी स्वाधीनता पर कुठाराघात समझा और नौकरी से त्यागपत्र दे दिया।
इसके बाद वे मासिक पत्र ‘सचिव’ का प्रकाशन करने लगे। इसके मुखपृष्ठ पर लिखा होता था –
रामराज्य की शक्ति शान्ति, सुखमय स्वतन्त्रता लाने को
लिया सचिव ने जन्म, देश की परतन्त्रता मिटाने को।।
पार्षद जी की रुचि बालपन से ही कविता में भी थी। 15 वर्ष की अवस्था में उन्होंने हरिगीतिका, सवैया, घनाक्षरी आदि छंदों में रामायण का बालकांड लिखा; पर उनके पिताजी को किसी ने कहा कि कवि सदा दरिद्र रहता है तथा उसका अंग-भंग हो जाता है। अतः उन्होंने उसकी पांडुलिपि को कुएं में फेंक दिया। इससे रुष्ट होकर पार्षद जी अयोध्या चले गये और मौनी बाबा से दीक्षा ले ली। कुछ समय बाद घर वाले उन्हें समझाकर वापस ले आये।
एक समारोह में पार्षद जी ने अध्यक्ष महावीर प्रसाद द्विवेदी के स्वागत में कविता पढ़ी। इससे गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ बहुत प्रभावित हुए। 1923 में फतेहपुर (उ.प्र.) में जिला कांग्रेस अधिवेशन में विद्यार्थी जी के ओजस्वी भाषण के बाद सरकार ने उन्हें जेल भेज दिया। वापस आने पर उनके स्वागत में भी पार्षद जी ने एक कविता पढ़ी। इस प्रकार दोनों की घनिष्ठता बढ़ती गयी।
उन दिनों कांग्रेस का अपना झंडा तो था; पर उसके लिए कोई गीत नहीं था। विद्यार्थी जी ने पार्षद जी से झंडे के लिए एक गीत बनाने के लिए कहा। उन्होंने सहमति तो दे दी किंतु अत्यधिक व्यस्तता के कारण काफी समय तक गीत लिख नहीं पाये। इससे विद्यार्थी जी बहुत नाराज हुए। इस पर पार्षद जी ने जल्दी ही लिखने का निर्णय लिया और लगभग चार मार्च, 1924 की रात में यह गीत लिखा –
*विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा* ।
13 अप्रैल, 1924 को ‘जलियांवाला बाग कांड’ की स्मृति में कानपुर के फूलबाग में हुई सभा में नेहरु जी की उपस्थिति में यह गीत पहली बार गाया गया।
क्रमशः यह गीत लोकप्रिय होता गया। 1938 के हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में जब गांधी जी और नेहरु आदि ने इसे गाया, तो पार्षद जी भाव विभोर हो उठे। वे फिर गांधी जी के कार्य में सहयोग करने लगे और ‘असहयोग आंदोलन’ और ‘नमक आंदोलन’ में जेल भी गये। 1921 में उन्होंने स्वराज्य प्राप्ति तक नंगे पांव रहने का व्रत लिया और उसे निभाया।
पर आजादी के बाद कांग्रेस का हाल और क्रियाकलाप देखकर पार्षद जी खिन्न और निराश हताश हो गये थे, फिर स्वतंत्र रूप से कांग्रेस की बैठक में ज्यादा आना-जाना नहीं किया
फिर उन्होंने अपने आप को व्यस्त रखने के लिए ग्राम नरवल में ही ‘गणेश सेवा आश्रम’ खोला। वहां प्रतिदिन वे पैदल जाते थे। एक बार उनके पैर में कांच गहरा चुभ गया। आश्रम में राष्ट्र के प्रति निरंतर चिंतन चर्चा करते-करते अपने घाव के प्रति इलाज भी ठीक से नहीं कर पाए और अंततः 10 अगस्त, 1977 को उनका देहान्त हो गया।
हिंदुस्तान के इस महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी लेखक पत्रकार को शत-शत नमन💐💐💐💐💐 (प्रस्तुति- भरत सिंह रावत)